Friday, July 15, 2022

हर साल वचन निभाने पुरी से मानोरा आते हैं भगवान जगदीश स्वामी


 विदिशा. अपने भक्त मानकचंद तरफदार को दिया वचन निभाने जगदीश स्वामी अपने भाई बलभद्र और बहन देवी सुभद्रा संग हर साल आषाढ़ सुदी दूज के दिन भक्तों को दर्शन देने जगन्नाथ पुरी से मानोरा आते हैं। ऐसी मान्यता है कि जब वे पुरी से मानोरा की ओर प्रस्थान करते हैं तो पुरी में रथ पल भर को स्थिर हो जाता है और वहां के पंडा घोषणा करते हैं कि भगवान अपने भक्त के गांव मानोरा पधार गए हैं। इसी आस्था के वशीभूत होकर लाखों दर्शनार्थी रथ में आरूढ़ भगवान जगदीश स्वामी के दर्शन करने उमड़ पड़ते हैं। आस्था ऐसी की दूर-दूर से अपनी मन्नतों की गठरी बांधे लोग दंडवत करते हुए चले आते हैं। जिले के छोटे से गांव मानोरा में 4 जुलाई को भगवान जगदीश स्वामी अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए गर्भग्रह से निकलकर रथ में सवार होकर गांव में निकलेंगे। दूर-दूर के लाखों लोग उनके दर्शन करने मानोरा पहुंचने का मन बना चुके हैं। गांव का हर घर भगवान का स्वागत करने और दूर-दूर से आने वाले दर्शनार्थियों की मेजबानी करने आतुर है। मान्यता भी है कि जो लोग उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी न जा पाते हों, वे मानोरा में आकर भगवान के दर्शन कर लें उन्हें वही पुण्य मिलेगा। दूर-दूर से दंडवत करते और अपनी मनोकामना लिए जगदीश के दरबार में दर्शनार्थियों के पहुंचने का सिलसिला शुरू हो गया है। 

हाथों से खींचा जाता है भगवान का रथ
विदिशा जिले के मनोरा में तीन सौ साल पुराना भगवान जगदीश का मंदिर है। इस प्राचीन मंदिर में भगवान जगन्नाथए बलभद्र और देवी सुभद्रा के श्रीविग्रह विराजमान हैं। यहां के हर घर में सभी जाति-धर्म के लोग एकजुट होकर भगवान का रथ खींचते हैं और मिलजुलकर इस उत्सव को मनाते हैं। सुबह 6 बजे भगवान रथ में विराजित होते हैं और करीब 7 बजे रथ मंदिर से रवाना होता है। 
जगन्नाथ पुरी में होती है घोषणा
मंदिर के मुख्य पुजारी भगवती दास ने पत्रिका को बताया कि रथयात्रा से एक दिन पहले शाम को जब आरती के बाद भोग लगाकर भगवान को शयन कराते हैं तब मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं। खास बात यह है कि दूसरे दिन सुबह जब मंदिर पहुंचते हैं तो पट अपने आप थोड़े से खुले मिलते हैं। जब रथ पर भगवान को सवार कराया जाता है तो अपने आप उसमें कंपन्न होता है अथवा वह खुद ही लुढ़कने लगता है। यही प्रतीक है कि भगवान मानोरा पधार गए। मुख्य पुजारी के मुताबिक उड़ीसा की पुरी में भी पंडा रथयात्रा के दौरान जब वहां भगवान का रथ ठिठककर रुकता है तो घोषणा करते हैं कि भगवान मानोरा पधार गए हैं।
जगन्नाथ का भात जगत पसारे हाथ
जगन्नाथ का भात, जगत पसारे हाथ... इसी मान्यता के अनुसार भगवान जगदीश स्वामी को मीठे पीले भात का भोग विशेष तौर पर चढ़ाया जाता है। भात का यह भोग अटका कहलाता है, जिसे पूरे विधि-विधान और शुद्धता के साथ मिट्टी की सात हंडियों मेंं मंदिर के मुख्य पुजारी द्वारा ही तैयार किया जाता है। भगवान को अर्पित करने के बाद यही भात भक्तों में प्रसादी के तौर पर वितरित किया जाता है।
जय जगदीश हरे की टेर
इस मंदिर में हजारों श्रद्धालु मीलों दूर से दण्डवत करते हुए मनोरा पहुंचते हैं। रास्ते चाहे पथरीले हो, कटीले हो या कीचड़ से भरे हो, भक्तों की आस्था पीछे नहीं हटती है। दो-दो दिन पहले से ही लोग दंडवत करते हुए मानोरा पहुंचने लगते हैं। रास्ते भर जय जगदीश हरे की टेर लगाते चलते हैं।
प्रशासन ने किए पुख्ता इंतजाम
लाखों लोगों की मौजूदगी को देखते हुए मानोरा मेले के लिए प्रशासन ने भी पुख्ता इंतजाम किए हैं। जिले भर से पुलिस बल मानोरा पहुंचने लगा है। सीसीटीवी कैमरे लगाए जा रहे हैं। रथयात्रा का मार्ग व्यवस्थित किया गया है। दर्शनार्थियों को पिण्ड भरने और दर्शन करने में असुविधा न हो इसका पूरा ध्यान रखा जा रहा है। मेला परिसर में पुलिस चौकी भी बनाई जा रही है। पानी, बिजली आदि के पूरे इंतजाम किए गए हैं।
हर घर मेजबानी के लिए तैयार
श्री जगदीश स्वामी मंदिर ट्रस्ट मानोरा के अध्यक्ष भगवान सिंह रघुवंशी कहते हैं कि मानोरा सात-आठ सौ घरों की बस्ती है, लेकिन रथयात्रा के दिन यहां दर्शनार्थियों का ऐसा सैलाब उमड़ता है कि करीब 6-7 लाख लोग जगदीश स्वामी के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। गांव में हर समाज के लोग न सिर्फ भगवान का भक्तिभाव से स्वागत करते हैं बल्कि दूरदराज से आने वाले मेहमानों का भी दिल से स्वागत करते हैं।
मानकचंद और पद्मावती की आस्था का प्रतीक
मं दिर ट्रस्ट के ट्रस्टी रामनाथ सिंह के मुताबिक यह मंदिर भगवान के भक्त और मनोरा के तरफदार मानिकचंद और देवी पद्मावती की आस्था का प्रतीक है। तरफदार दंपती भगवान के दर्शन की आकांक्षा में दंडवत करते हुए जगन्नाथपुरी चल पड़े थे। दुर्गम रास्तों के कारण दोनों के शरीर लहुलुहान हो गए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। इस पर भगवान स्वयं प्रकट हुए और उनको मनोरा में ही हर वर्ष दर्शन देने आने का वचन दे दिया। अपने भक्त को दिए इसी वचन को निभाने हर साल आषाढ़ सुदी दूज को रथयात्रा के दिन भगवान जगदीश मनोरा पधारते हैं और रथ में सवार होकर भक्तों को दर्शन देने निकलते हैं। मंदिर के ट्रस्टी और पूर्व सरपंच रामनाथ सिंह बताते हैं कि जब मंदिर बना तो जगन्नाथ पुरी उड़ीसा से जगदीश स्वामी, बलदाऊ जी और देवी सुभद्र की ये प्रतिमाएं कांवड़ों में रखकर मानोरा लाईं गईं थी और वहीं के पंडों ने प्रतिमाओं की स्थापना कराई थी।

Monday, April 18, 2022

मंगलवार व्रत कथा


मंगलवार व्रत कथा

मंगलवार के दिन हम हनुमान जी की पूजा करते हैं. भगवान हनुमान को भय को दूर करने वाला तो माना ही जाता है साथ हनुमान जी आयु, पुत्र और सुखी वैवाहिक जीवन का भी फल देते हैं. इसीलिए कई लोग मंगलवार का व्रत पुत्र प्राप्ति के लिए रखते हैं.

मंगलवार पूजन विधि

मंगलवार व्रत की शुरूआत शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार से करनी चाहिए. इस व्रत को आठ मंगलवार अवश्य करें. इस व्रत में गेहूं और गुड़ से बना भोजन ही करना चाहिए. एक ही बार भोजन करें. लाल पुष्प चढ़ायें और लाल ही वस्त्र धारण करें. अंत में हनुमान जी की पूजा करें.

मंगलवार व्रत कथा

एक निःसन्तान ब्राह्मण दम्पत्ति की है जो काफ़ी दुःखी थे. ब्राह्मण वन में पूजा करने गया, और हनुमान जी से पुत्र की कामना करने लगा. घर पर उसकी स्त्री भी पुत्र की प्राप्त के लिये मंगलवार का व्रत करती थी. मंगलवार के दिन व्रत के अंत में हनुमान जी को भोग लगाकर भोजन करती थी. एक बार व्रत के दिन ब्राह्मणी ना भोजन बना पायी, और ना भोग ही लगा सकी. तब उसने प्रण किया कि अगले मंगल को ही भोग लगाकर अन्न ग्रहण करेगी. भूखे प्यासे छः दिन के बाद मंगलवार के दिन तक वह बेहोश हो गयी. हनुमान जी उसकी निष्ठा और लगन को देखकर प्रसन्न हो गये. उसे दर्शन देकर कहा कि वे उससे प्रसन्न हैं, और उसे बालक देंगे, जो कि उसकी सेवा किया करेगा. हनुमान जी ने उस स्त्री को पुत्र रत्न दिया औरमंगलवार पूजन विधि

मंगलवार व्रत की शुरूआत शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार से करनी चाहिए. इस व्रत को आठ मंगलवार अवश्य करें. इस व्रत में गेहूं और गुड़ से बना भोजन ही करना चाहिए. एक ही बार भोजन करें. लाल पुष्प चढ़ायें और लाल ही वस्त्र धारण करें. अंत में हनुमान जी की पूजा करें.

मंगलवार व्रत कथा

एक निःसन्तान ब्राह्मण दम्पत्ति की है जो काफ़ी दुःखी थे. ब्राह्मण वन में पूजा करने गया, और हनुमान जी से पुत्र की कामना करने लगा. घर पर उसकी स्त्री भी पुत्र की प्राप्त के लिये मंगलवार का व्रत करती थी. मंगलवार के दिन व्रत के अंत में हनुमान जी को भोग लगाकर भोजन करती थी. एक बार व्रत के दिन ब्राह्मणी ना भोजन बना पायी, और ना भोग ही लगा सकी. तब उसने प्रण किया कि अगले मंगल को ही भोग लगाकर अन्न ग्रहण करेगी. भूखे प्यासे छः दिन के बाद मंगलवार के दिन तक वह बेहोश हो गयी. हनुमान जी उसकी निष्ठा और लगन को देखकर प्रसन्न हो गये. उसे दर्शन देकर कहा कि वे उससे प्रसन्न हैं, और उसे बालक देंगे, जो कि उसकी सेवा किया करेगा. हनुमान जी ने उस स्त्री को पुत्र रत्न दिया और अंतर्ध्यान हो गए.

ब्राह्मणी इससे अति प्रसन्न हो गयी और उस बालक का नाम मंगल रखा. कुछ समय उपरांत जब ब्राह्मण घर आया, तो बालक को देख पूछा कि वह कौन है? पत्नी ने सारी कथा अपने स्वामी को बतायी. पत्नी की बातों को छल पूर्ण जान ब्राह्मण ने सोचा कि उसकी पत्नी व्यभिचारिणी है. एक दिन मौका देख ब्राह्मण ने बालक को कुंए में गिरा दिया, और घर पर पत्नी के पूछने पर ब्राह्मण घबराया. पीछे से मंगल मुस्कुरा कर आ गया. ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गया. रात को हनुमानजी ने उसे सपने में सब कथा बतायी, तो ब्राह्मण अति हर्षित हुआ. फ़िर वह दम्पति मंगल का व्रत रखकर आनंद का जीवन व्यतीत करने लगे.

एक नीला व्यक्ति पेट के बल रावण के पैर के नीचे लेटा रहता है। यह कौन था?

एक नीला व्यक्ति पेट के बल रावण के पैर के नीचे लेटा रहता है। यह कौन था?

आपने रामायण में देखा होगा की एक नीला व्यक्ति पेट के बल रावण के पैर के नीचे लेटा रहता है। यह कौन था? आइए आज हम आपको बताते हैं की यह नीला व्यक्ति कौन होता है यह साक्षात ग्रहों के देवता शनिदेव थे। इसके पीछे एक पौराणिक कथा है जो मैं आज आपको विस्तार से बताने वाला हूं। रावण एक बहुत बड़ा ज्योतिषी था एक बार सभी देवों को हराकर सभी नौ ग्रहों को हराकर अपने अधिकार में कर लिया था। सभी ग्रहों को मुंह के बल लेटा कर अपने पैरों को नीचे रखता था उसके पुत्र के पैदा होने के समय रावण ने सभी ग्रहों को शुभ स्थिति में रख दिया था। देवताओं को डर भी था की इस प्रकार रावण का पुत्र इंद्रजीत अजय हो जाएगा लेकिन ग्रह भी रावण के पैरों के नीचे दबे होने के कारण उसका कुछ उपाय नहीं कर सकते थे । शनी अपनी दृष्टि से रावण की शुभ स्थिति को खराब करने में सक्षम थे पर वह मुंह के बल जमीन पर होने के कारण कुछ नहीं कर सकते थे। तब नारद मुनि लंका आए और ग्रहों को जीतने के कारण रावण की बहुत प्रशंसा की और कहा अपने यश को इन ग्रहों को दिखाना चाहिए जो कि जमीन पर मुंह के बल होने के कारण कुछ नहीं देख सकते है।  रावण ने नारद की बात मान ली और ग्रहों का मुख आसमान की ओर कर दिया तब शनी ने अपनी मार्ग दृष्टि से रावण की दशा खराब कर दी।  रावण को बात समझ आई और उसने सनी को कारागृह में डाल दिया और वह भागने सके इसलिए जेल के द्वार पर इस प्रकार शिवलिंग लगा दिया कि उस पर पांव रखे बिना शनि देव भाग ही ना सके तब हनुमान जी ने लंका आकर शनि देव को अपने सर पर बिठाकर मुक्त कराया था। शनी के सिर पर बैठने में हनुमान कई प्रकार के बुरे चक्रों में पड़ सकते थे। यह जानकर भी उन्होंने ऐसा किया तब शनी ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को अपने मार्ग कोप से हमेशा मुक्त होने का आशीर्वाद दिया और एक वर मांगने को कहा तब हनुमानजी ने अपने भक्तों के लिए हमेशा शनि के कोप से मुक्त रहने का आशीर्वाद मांगा। इसीलिए कहते हैं कि जो भी हनुमान जी की आराधना करता है वह शनिदेव की दृष्टि से दूर रहता है।

Friday, April 15, 2022

हनुमान जयंती या जन्मोत्सव-

 


बजरंगबली के भक्तों के लिए हनुमान जन्मोत्सव का दिन खास होता है।पौराणिक मान्यताओं व शास्त्रों के अनुसार,  चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि को हनुमान जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। प्रभु राम भक्त हनुमान जी का जन्मोत्सव देशभर में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

हनुमान जयंती या जन्मोत्सव-

हनुमान जी के जन्मदिन को जन्मोत्सव कहा जाए या फिर जयंती, इस पर चर्चा हो रही है। जानकारों का कहना है कि इस दिन को जयंती नहीं बल्कि जन्मोत्सव कहना उचित है। ज्योतिषाचार्यों का मत है कि जयंती और जन्मोत्सव में अंतर होता है। जयंती का शब्द का इस्तेमाल उस व्यक्ति के लिए किया जाता है, जो संसार में नहीं है। लेकिन ये बात पवनपुत्र हनुमान जी पर लागू नहीं होती है। हनुमान जी को कलियुग के जीवित व जागृत देवता माने गए हैं। तुलसीदास जी ने भी कलियुग में हनुमान जी की मौजूदगी का उल्लेख किया है। मान्यता है कि भगवान राम से अमरता का वरदान पाने के बाद हनुमान जी ने गंधमादन पर्वत पर निवास बनाया है। कहा जाता है कि इसी स्थान से कलियुग में धर्म के रक्षक बजरंगबली जी निवास करते हैं। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, इस दिन जो जयंती नहीं बल्कि जन्मोत्सव कहना उचित होगा

गंधमादन पर्वत कहां है?

शास्त्रों के अनुसार, गंधमादन पर्वत कैलास पर्वत के उत्तम में मौजूद है। इस पर्वत पर ही महर्षि कश्यप ने तपस्या की थी।

पवन पुत्र हनुमान के जन्म से जुड़ी पौराणिक कथा-

पौरा​णिक कथा के अनुसार, केसरी राज के साथ विवाह करने के बाद कई वर्षों तक माता अंजना को पुत्र सुख की प्राप्ति नहीं हुई। वह मंतग मुनि के पास जाकर पुत्र प्राप्ति का मार्ग पूछने लगीं। ऋषि ने बताया की वृषभाचल पर्वत पर भगवान वेंकटेश्वर की पूजा-अर्चना करो। फिर गंगा तट पर स्नान करके वायु देव को प्रसन्न करो। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। माता अंजना वायु देव को प्रसन्न करने में सफल रहीं। वायु देव ने उन्हें दर्शन देकर आशीष दिया कि उनका ही रूप उनके पुत्र के रूप में अवतरित होगा। इस तरह मां अंजना ने हनुमान जी के रूप में पुत्र को जन्म दिया। इसी कारण हनुमान को पवनपुत्र, केसरीनंदन आदि नामों से जाना जाता है।


Friday, April 8, 2022

कालरात्रि


 कालरात्रि

दुर्गा जी का सातवां स्वरूप मां कालरात्रि है. इनका रंग काला होने के कारण ही इन्हें कालरात्रि कहा गया और असुरों के राजा रक्तबीज का वध करने के लिए देवी दुर्गा ने अपने तेज से इन्हें उत्पन्न किया था. इनकी पूजा शुभ फलदायी होने के कारण इन्हें 'शुभंकारी' भी कहते हैं.

मान्यता है कि माता कालरात्रि की पूजा करने से मनुष्य समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है. माता कालरात्रि पराशक्तियों (काला जादू) की साधना करने वाले जातकों के बीच बेहद प्रसिद्ध हैं. मां की भक्ति से दुष्टों का नाश होता है और ग्रह बाधाएं दूर हो जाती हैं.

असुरों को वध करने के लिए दुर्गा मां बनी कालरात्रि 

देवी कालरात्रि का शरीर रात के अंधकार की तरह काला है इनके बाल बिखरे हुए हैं और इनके गले में विधुत की माला है. इनके चार हाथ हैं जिसमें इन्होंने एक हाथ में कटार और एक हाथ में लोहे का कांटा धारण किया हुआ है. इसके अलावा इनके दो हाथ वरमुद्रा और अभय मुद्रा में है. इनके तीन नेत्र है तथा इनके श्वास से अग्नि निकलती है. कालरात्रि का वाहन गर्दभ(गधा) है.

मां कालरात्रि की उत्पत्ति की कथा

कथा के अनुसार दैत्य शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था. इससे चिंतित होकर सभी देवतागण शिव जी के पास गए. शिव जी ने देवी पार्वती से राक्षसों का वध कर अपने भक्तों की रक्षा करने को कहा. शिव जी की बात मानकर पार्वती जी ने दुर्गा का रूप धारण किया और शुंभ-निशुंभ का वध कर दिया. परंतु जैसे ही दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा उसके शरीर से निकले रक्त से लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो गए. इसे देख दुर्गा जी ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया. इसके बाद जब दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा तो उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को कालरात्रि ने अपने मुख में भर लिया और सबका गला काटते हुए रक्तबीज का वध कर दिया.मां को गुड़ का भोग प्रिय हैसप्तमी तिथि के दिन भगवती की पूजा में गुड़ का नैवेद्य अर्पित करके ब्राह्मण को दे देना चाहिए. ऐसा करने से पुरुष शोकमुक्त हो सकता है.

शुभकामना को पूरा करेगा मां कालरात्रि का ये मंत्रनवरात्र के सातवें दिन मां कालरात्रि की उपासना इस मंत्र से करनी चाहिए: 

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता, लम्बोष्टी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।

वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा, वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी

Wednesday, April 6, 2022

नवरात्र के छठे दिन मां दुर्गा के कात्यायनी स्वरूप की पूजा


नवरात्र के छठे दिन मां दुर्गा के कात्यायनी स्वरूप की पूजा की जाती है
। 

माता का यह स्वरूप बहुत ही करुणामयी है। माता ने यह स्वरूप अपने भक्त की तपस्या को सफल बनाने के लिए धारण किया था।महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उनकी पुत्री के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया था। अपने दिए वरदान के कारण देवी ने कात्यायन के यहां जन्म लिया और देवी कात्यायनी कहलायीं। मां कात्यायनी को महिषासुर मर्दनी भी कहा जाता है।पुराणों के अनुसार इनकी उपासना करनेवाले को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

श्रीमद देवीभागवत पुराण के अनुसार मां कात्यायनी का रंग स्वर्ण की भांति चमकीला है और इनकी चार भुजाएं हैं। दाईं ओर के ऊपर वाली भुजा अभय मुद्रा में है और नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। बाईं ओर के ऊपर वाले हाथ में खड्ग अर्थात् तलवार लिए हुए माता हैं और नीचेवाले हाथ में कमल का फूल है। इनका वाहन सिंह है। मां के रूप का वर्णन शास्त्रों में कुछ इस प्रकार मिलता है…

चंद्रहासोज्ज्वलकरा, शार्दूलवरवाहना। कात्यायनी शुभं दद्यात्, देवी दानवघातनी।।

इस श्लोक का अर्थ है, चंद्रहास की भांति देदीप्यमान, शार्दूल अर्थात् शेर पर सवार और दानवों का विनाश करनेवाली मां कात्यायनी हम सबके लिए शुभदायी हो।

श्रीकृष्ण की लीलाओं में भी मां कात्यायनी के रूप और पूजन का वर्णन मिलता है। ब्रज प्रदेश की गोपियों ने भगवान कृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए यमुना के तट पर इन्हीं मां कात्यायनी की पूजा की थी। कहा जाता है कि जिन लोगों के विवाह में बाधा आ रही हो उन्हें देवी कात्यायनी की पूजा करनी चाहिए, इससे विवाह का योग प्रबल होता है।

🚩पूजा विधि और भोग

कात्यायनी की पूजा में शहद का विशेष महत्व बताया गया है इसलिए माता के इस स्वरूप को शहद का भोग अवश्य लगाना चाहिए। माता को शहद का भोग लगाते समय मिट्टी या चांदी के बर्तन का प्रयोग करना चाहिए। माता ने शहद युक्त पान खाकर महिषासुर का वध किया था जिसका उल्लेख दुर्गा सप्तशती में किया गया है।

ऋषि पुत्री होने के कारण मां दुर्गा के इस स्वरूप को अज्ञान का अंधकार मिटानेवाली देवी के रूप में भी पूजा जाता है। इसलिए उच्च शिक्षा का अध्ययन कर रहे छात्रों को मां कात्यायनी का पूजन अवश्य करना चाहिए।

माता कात्यायनी की पूजा शाम के समय करने का विशेष महत्व है। सूर्यास्त के समय देवी का पूजन करें। इनकी पूजा में पीले फूल और पीले वस्त्र अर्पित करने चाहिए। मां कात्यायनी का ध्यानमंत्र इस प्रकार है…

कंचनाभा वराभयं पद्मधरां मुकटोज्जवलां।

स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनी नमोस्तुते॥ 🌹💐🙏🏻

Tuesday, April 5, 2022

महालक्ष्मी मंदिर, कोल्हापुर:


महालक्ष्मी मंदिर, कोल्हापुर:
 पंचम नवरात्रि के तथा लक्ष्मी पंचमी के  दिन आप जानकारी प्राप्त कर रहे हैं महालक्ष्मी कोल्हापुर  मंदिर में विराजमान माता महालक्ष्मी की कथा को                                                            🚩मां लक्ष्मी का यह प्राचीन मंदिर महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में स्थित है। इसका नाम महालक्ष्मी मंदिर है। मान्यता के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण चालुक्य शासक कर्णदेव ने 7वीं शताब्दी में करवाया था। इसके बाद इस मंदिर का पुनर्निर्माण शिलहार यादव ने 9वीं शताब्दी में करवाया था। बता दें कि महालक्ष्मी मंदिर के मुख्य गर्भगृह में मां लक्ष्मी की 40 किलो की प्रतिमा स्थापित है। इस मूर्ति की लंबाई 4 फीट है। यह करीब 7,000 वर्ष पुरानी है।

महालक्ष्मी मंदिर की विशेषता:

ऐसी मान्यता है कि देवी सती के इस स्थान पर तीन नेत्र गिरे थे। यहां भगवती महालक्ष्मी का निवास माना जाता है। इस मंदिर की एक खासियत यह भी है कि वर्ष में एक बार मंदिर में मौजूद देवी की प्रतिमा पर सूर्य की किरणें सीधे पड़ती हैं। कहा जाता है कि महालक्ष्मी अपने पति तिरुपति यानी विष्णु जी से रूठकर कोल्हापुर आईं थीं। यही कारण है कि तिरुपति देवस्थान से आया शाल उन्हें दीपावली के दिन पहनाया जाता है।यह भी कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति की तिरुपति यात्रा तब तक पूरी नहीं होती है जब तक व्यक्ति यहां आकर महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना ना कर ले। यहां पर महालक्ष्मी को अंबाबाई नाम से भी जाना जाता है। दीपावली की रात मां की महाआरती की जाती है। मान्यता है कि यहां पर आने वाले हर भक्त की मुराद पूरी होती है।

महालक्ष्मी मंदिर की प्रचलित कथा:

केशी नाम का एक राक्षस था जिसके बेटे का नाम कोल्हासुर था। कोल्हासुर ने देवताओं को बहुत परेशान कर रखा था। इसके अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवगणों ने देवी से प्रार्थना की थी। तब महालक्ष्मी ने दुर्गा का रूप धारण किया और ब्रह्मशस्त्र से कोल्हासुर का सिर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन कोल्हासुर ने मरने से पहले मां से एक वरदान मांगा। उसने कहा कि इस इलाके को करवीर और कोल्हासुर के नाम से जाना जाए। यही कारण है कि मां को यहां पर करवीर महालक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। फिर बाद में इसका नाम कोल्हासुर से कोल्हापुर किया गया। इस मंदिर में

जानें मंदिर की बनावट के बारे में:

इस मंदिर में दो मुख्य हॉल हैं जिसमें पहला दर्शन मंडप और दूसरा कूर्म मंडप है। दर्शन मंडप हॉल की बात करें तो यहां श्रद्धालु जन माता के दिव्य स्वरूप का दर्शन करते हैं। वहीं, कूर्ममंडप में भक्तों पर पवित्र शंख द्वारा जल छिड़का जाता है। यहां मौजूद माता की प्रतिमा के चार हाथ हैं और उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल का पुष्प है। मां चांदी के भव्य सिंहासन पर विराजमान हैं। इनका छत्र शेषनाग का फन है। मां को धन-धान्य और सुख-संपत्ति की अधिष्ठात्री माना जाता है।

हर साल वचन निभाने पुरी से मानोरा आते हैं भगवान जगदीश स्वामी

  विदिशा . अपने भक्त मानकचंद तरफदार को दिया वचन निभाने जगदीश स्वामी अपने भाई बलभद्र और बहन देवी सुभद्रा संग हर साल आषाढ़ सुदी दूज के दिन भक्...