Monday, April 18, 2022

मंगलवार व्रत कथा


मंगलवार व्रत कथा

मंगलवार के दिन हम हनुमान जी की पूजा करते हैं. भगवान हनुमान को भय को दूर करने वाला तो माना ही जाता है साथ हनुमान जी आयु, पुत्र और सुखी वैवाहिक जीवन का भी फल देते हैं. इसीलिए कई लोग मंगलवार का व्रत पुत्र प्राप्ति के लिए रखते हैं.

मंगलवार पूजन विधि

मंगलवार व्रत की शुरूआत शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार से करनी चाहिए. इस व्रत को आठ मंगलवार अवश्य करें. इस व्रत में गेहूं और गुड़ से बना भोजन ही करना चाहिए. एक ही बार भोजन करें. लाल पुष्प चढ़ायें और लाल ही वस्त्र धारण करें. अंत में हनुमान जी की पूजा करें.

मंगलवार व्रत कथा

एक निःसन्तान ब्राह्मण दम्पत्ति की है जो काफ़ी दुःखी थे. ब्राह्मण वन में पूजा करने गया, और हनुमान जी से पुत्र की कामना करने लगा. घर पर उसकी स्त्री भी पुत्र की प्राप्त के लिये मंगलवार का व्रत करती थी. मंगलवार के दिन व्रत के अंत में हनुमान जी को भोग लगाकर भोजन करती थी. एक बार व्रत के दिन ब्राह्मणी ना भोजन बना पायी, और ना भोग ही लगा सकी. तब उसने प्रण किया कि अगले मंगल को ही भोग लगाकर अन्न ग्रहण करेगी. भूखे प्यासे छः दिन के बाद मंगलवार के दिन तक वह बेहोश हो गयी. हनुमान जी उसकी निष्ठा और लगन को देखकर प्रसन्न हो गये. उसे दर्शन देकर कहा कि वे उससे प्रसन्न हैं, और उसे बालक देंगे, जो कि उसकी सेवा किया करेगा. हनुमान जी ने उस स्त्री को पुत्र रत्न दिया औरमंगलवार पूजन विधि

मंगलवार व्रत की शुरूआत शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार से करनी चाहिए. इस व्रत को आठ मंगलवार अवश्य करें. इस व्रत में गेहूं और गुड़ से बना भोजन ही करना चाहिए. एक ही बार भोजन करें. लाल पुष्प चढ़ायें और लाल ही वस्त्र धारण करें. अंत में हनुमान जी की पूजा करें.

मंगलवार व्रत कथा

एक निःसन्तान ब्राह्मण दम्पत्ति की है जो काफ़ी दुःखी थे. ब्राह्मण वन में पूजा करने गया, और हनुमान जी से पुत्र की कामना करने लगा. घर पर उसकी स्त्री भी पुत्र की प्राप्त के लिये मंगलवार का व्रत करती थी. मंगलवार के दिन व्रत के अंत में हनुमान जी को भोग लगाकर भोजन करती थी. एक बार व्रत के दिन ब्राह्मणी ना भोजन बना पायी, और ना भोग ही लगा सकी. तब उसने प्रण किया कि अगले मंगल को ही भोग लगाकर अन्न ग्रहण करेगी. भूखे प्यासे छः दिन के बाद मंगलवार के दिन तक वह बेहोश हो गयी. हनुमान जी उसकी निष्ठा और लगन को देखकर प्रसन्न हो गये. उसे दर्शन देकर कहा कि वे उससे प्रसन्न हैं, और उसे बालक देंगे, जो कि उसकी सेवा किया करेगा. हनुमान जी ने उस स्त्री को पुत्र रत्न दिया और अंतर्ध्यान हो गए.

ब्राह्मणी इससे अति प्रसन्न हो गयी और उस बालक का नाम मंगल रखा. कुछ समय उपरांत जब ब्राह्मण घर आया, तो बालक को देख पूछा कि वह कौन है? पत्नी ने सारी कथा अपने स्वामी को बतायी. पत्नी की बातों को छल पूर्ण जान ब्राह्मण ने सोचा कि उसकी पत्नी व्यभिचारिणी है. एक दिन मौका देख ब्राह्मण ने बालक को कुंए में गिरा दिया, और घर पर पत्नी के पूछने पर ब्राह्मण घबराया. पीछे से मंगल मुस्कुरा कर आ गया. ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गया. रात को हनुमानजी ने उसे सपने में सब कथा बतायी, तो ब्राह्मण अति हर्षित हुआ. फ़िर वह दम्पति मंगल का व्रत रखकर आनंद का जीवन व्यतीत करने लगे.

एक नीला व्यक्ति पेट के बल रावण के पैर के नीचे लेटा रहता है। यह कौन था?

एक नीला व्यक्ति पेट के बल रावण के पैर के नीचे लेटा रहता है। यह कौन था?

आपने रामायण में देखा होगा की एक नीला व्यक्ति पेट के बल रावण के पैर के नीचे लेटा रहता है। यह कौन था? आइए आज हम आपको बताते हैं की यह नीला व्यक्ति कौन होता है यह साक्षात ग्रहों के देवता शनिदेव थे। इसके पीछे एक पौराणिक कथा है जो मैं आज आपको विस्तार से बताने वाला हूं। रावण एक बहुत बड़ा ज्योतिषी था एक बार सभी देवों को हराकर सभी नौ ग्रहों को हराकर अपने अधिकार में कर लिया था। सभी ग्रहों को मुंह के बल लेटा कर अपने पैरों को नीचे रखता था उसके पुत्र के पैदा होने के समय रावण ने सभी ग्रहों को शुभ स्थिति में रख दिया था। देवताओं को डर भी था की इस प्रकार रावण का पुत्र इंद्रजीत अजय हो जाएगा लेकिन ग्रह भी रावण के पैरों के नीचे दबे होने के कारण उसका कुछ उपाय नहीं कर सकते थे । शनी अपनी दृष्टि से रावण की शुभ स्थिति को खराब करने में सक्षम थे पर वह मुंह के बल जमीन पर होने के कारण कुछ नहीं कर सकते थे। तब नारद मुनि लंका आए और ग्रहों को जीतने के कारण रावण की बहुत प्रशंसा की और कहा अपने यश को इन ग्रहों को दिखाना चाहिए जो कि जमीन पर मुंह के बल होने के कारण कुछ नहीं देख सकते है।  रावण ने नारद की बात मान ली और ग्रहों का मुख आसमान की ओर कर दिया तब शनी ने अपनी मार्ग दृष्टि से रावण की दशा खराब कर दी।  रावण को बात समझ आई और उसने सनी को कारागृह में डाल दिया और वह भागने सके इसलिए जेल के द्वार पर इस प्रकार शिवलिंग लगा दिया कि उस पर पांव रखे बिना शनि देव भाग ही ना सके तब हनुमान जी ने लंका आकर शनि देव को अपने सर पर बिठाकर मुक्त कराया था। शनी के सिर पर बैठने में हनुमान कई प्रकार के बुरे चक्रों में पड़ सकते थे। यह जानकर भी उन्होंने ऐसा किया तब शनी ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को अपने मार्ग कोप से हमेशा मुक्त होने का आशीर्वाद दिया और एक वर मांगने को कहा तब हनुमानजी ने अपने भक्तों के लिए हमेशा शनि के कोप से मुक्त रहने का आशीर्वाद मांगा। इसीलिए कहते हैं कि जो भी हनुमान जी की आराधना करता है वह शनिदेव की दृष्टि से दूर रहता है।

Friday, April 15, 2022

हनुमान जयंती या जन्मोत्सव-

 


बजरंगबली के भक्तों के लिए हनुमान जन्मोत्सव का दिन खास होता है।पौराणिक मान्यताओं व शास्त्रों के अनुसार,  चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि को हनुमान जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। प्रभु राम भक्त हनुमान जी का जन्मोत्सव देशभर में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

हनुमान जयंती या जन्मोत्सव-

हनुमान जी के जन्मदिन को जन्मोत्सव कहा जाए या फिर जयंती, इस पर चर्चा हो रही है। जानकारों का कहना है कि इस दिन को जयंती नहीं बल्कि जन्मोत्सव कहना उचित है। ज्योतिषाचार्यों का मत है कि जयंती और जन्मोत्सव में अंतर होता है। जयंती का शब्द का इस्तेमाल उस व्यक्ति के लिए किया जाता है, जो संसार में नहीं है। लेकिन ये बात पवनपुत्र हनुमान जी पर लागू नहीं होती है। हनुमान जी को कलियुग के जीवित व जागृत देवता माने गए हैं। तुलसीदास जी ने भी कलियुग में हनुमान जी की मौजूदगी का उल्लेख किया है। मान्यता है कि भगवान राम से अमरता का वरदान पाने के बाद हनुमान जी ने गंधमादन पर्वत पर निवास बनाया है। कहा जाता है कि इसी स्थान से कलियुग में धर्म के रक्षक बजरंगबली जी निवास करते हैं। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, इस दिन जो जयंती नहीं बल्कि जन्मोत्सव कहना उचित होगा

गंधमादन पर्वत कहां है?

शास्त्रों के अनुसार, गंधमादन पर्वत कैलास पर्वत के उत्तम में मौजूद है। इस पर्वत पर ही महर्षि कश्यप ने तपस्या की थी।

पवन पुत्र हनुमान के जन्म से जुड़ी पौराणिक कथा-

पौरा​णिक कथा के अनुसार, केसरी राज के साथ विवाह करने के बाद कई वर्षों तक माता अंजना को पुत्र सुख की प्राप्ति नहीं हुई। वह मंतग मुनि के पास जाकर पुत्र प्राप्ति का मार्ग पूछने लगीं। ऋषि ने बताया की वृषभाचल पर्वत पर भगवान वेंकटेश्वर की पूजा-अर्चना करो। फिर गंगा तट पर स्नान करके वायु देव को प्रसन्न करो। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। माता अंजना वायु देव को प्रसन्न करने में सफल रहीं। वायु देव ने उन्हें दर्शन देकर आशीष दिया कि उनका ही रूप उनके पुत्र के रूप में अवतरित होगा। इस तरह मां अंजना ने हनुमान जी के रूप में पुत्र को जन्म दिया। इसी कारण हनुमान को पवनपुत्र, केसरीनंदन आदि नामों से जाना जाता है।


Friday, April 8, 2022

कालरात्रि


 कालरात्रि

दुर्गा जी का सातवां स्वरूप मां कालरात्रि है. इनका रंग काला होने के कारण ही इन्हें कालरात्रि कहा गया और असुरों के राजा रक्तबीज का वध करने के लिए देवी दुर्गा ने अपने तेज से इन्हें उत्पन्न किया था. इनकी पूजा शुभ फलदायी होने के कारण इन्हें 'शुभंकारी' भी कहते हैं.

मान्यता है कि माता कालरात्रि की पूजा करने से मनुष्य समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है. माता कालरात्रि पराशक्तियों (काला जादू) की साधना करने वाले जातकों के बीच बेहद प्रसिद्ध हैं. मां की भक्ति से दुष्टों का नाश होता है और ग्रह बाधाएं दूर हो जाती हैं.

असुरों को वध करने के लिए दुर्गा मां बनी कालरात्रि 

देवी कालरात्रि का शरीर रात के अंधकार की तरह काला है इनके बाल बिखरे हुए हैं और इनके गले में विधुत की माला है. इनके चार हाथ हैं जिसमें इन्होंने एक हाथ में कटार और एक हाथ में लोहे का कांटा धारण किया हुआ है. इसके अलावा इनके दो हाथ वरमुद्रा और अभय मुद्रा में है. इनके तीन नेत्र है तथा इनके श्वास से अग्नि निकलती है. कालरात्रि का वाहन गर्दभ(गधा) है.

मां कालरात्रि की उत्पत्ति की कथा

कथा के अनुसार दैत्य शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था. इससे चिंतित होकर सभी देवतागण शिव जी के पास गए. शिव जी ने देवी पार्वती से राक्षसों का वध कर अपने भक्तों की रक्षा करने को कहा. शिव जी की बात मानकर पार्वती जी ने दुर्गा का रूप धारण किया और शुंभ-निशुंभ का वध कर दिया. परंतु जैसे ही दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा उसके शरीर से निकले रक्त से लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो गए. इसे देख दुर्गा जी ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया. इसके बाद जब दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा तो उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को कालरात्रि ने अपने मुख में भर लिया और सबका गला काटते हुए रक्तबीज का वध कर दिया.मां को गुड़ का भोग प्रिय हैसप्तमी तिथि के दिन भगवती की पूजा में गुड़ का नैवेद्य अर्पित करके ब्राह्मण को दे देना चाहिए. ऐसा करने से पुरुष शोकमुक्त हो सकता है.

शुभकामना को पूरा करेगा मां कालरात्रि का ये मंत्रनवरात्र के सातवें दिन मां कालरात्रि की उपासना इस मंत्र से करनी चाहिए: 

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता, लम्बोष्टी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।

वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा, वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी

Wednesday, April 6, 2022

नवरात्र के छठे दिन मां दुर्गा के कात्यायनी स्वरूप की पूजा


नवरात्र के छठे दिन मां दुर्गा के कात्यायनी स्वरूप की पूजा की जाती है
। 

माता का यह स्वरूप बहुत ही करुणामयी है। माता ने यह स्वरूप अपने भक्त की तपस्या को सफल बनाने के लिए धारण किया था।महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उनकी पुत्री के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया था। अपने दिए वरदान के कारण देवी ने कात्यायन के यहां जन्म लिया और देवी कात्यायनी कहलायीं। मां कात्यायनी को महिषासुर मर्दनी भी कहा जाता है।पुराणों के अनुसार इनकी उपासना करनेवाले को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

श्रीमद देवीभागवत पुराण के अनुसार मां कात्यायनी का रंग स्वर्ण की भांति चमकीला है और इनकी चार भुजाएं हैं। दाईं ओर के ऊपर वाली भुजा अभय मुद्रा में है और नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में। बाईं ओर के ऊपर वाले हाथ में खड्ग अर्थात् तलवार लिए हुए माता हैं और नीचेवाले हाथ में कमल का फूल है। इनका वाहन सिंह है। मां के रूप का वर्णन शास्त्रों में कुछ इस प्रकार मिलता है…

चंद्रहासोज्ज्वलकरा, शार्दूलवरवाहना। कात्यायनी शुभं दद्यात्, देवी दानवघातनी।।

इस श्लोक का अर्थ है, चंद्रहास की भांति देदीप्यमान, शार्दूल अर्थात् शेर पर सवार और दानवों का विनाश करनेवाली मां कात्यायनी हम सबके लिए शुभदायी हो।

श्रीकृष्ण की लीलाओं में भी मां कात्यायनी के रूप और पूजन का वर्णन मिलता है। ब्रज प्रदेश की गोपियों ने भगवान कृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए यमुना के तट पर इन्हीं मां कात्यायनी की पूजा की थी। कहा जाता है कि जिन लोगों के विवाह में बाधा आ रही हो उन्हें देवी कात्यायनी की पूजा करनी चाहिए, इससे विवाह का योग प्रबल होता है।

🚩पूजा विधि और भोग

कात्यायनी की पूजा में शहद का विशेष महत्व बताया गया है इसलिए माता के इस स्वरूप को शहद का भोग अवश्य लगाना चाहिए। माता को शहद का भोग लगाते समय मिट्टी या चांदी के बर्तन का प्रयोग करना चाहिए। माता ने शहद युक्त पान खाकर महिषासुर का वध किया था जिसका उल्लेख दुर्गा सप्तशती में किया गया है।

ऋषि पुत्री होने के कारण मां दुर्गा के इस स्वरूप को अज्ञान का अंधकार मिटानेवाली देवी के रूप में भी पूजा जाता है। इसलिए उच्च शिक्षा का अध्ययन कर रहे छात्रों को मां कात्यायनी का पूजन अवश्य करना चाहिए।

माता कात्यायनी की पूजा शाम के समय करने का विशेष महत्व है। सूर्यास्त के समय देवी का पूजन करें। इनकी पूजा में पीले फूल और पीले वस्त्र अर्पित करने चाहिए। मां कात्यायनी का ध्यानमंत्र इस प्रकार है…

कंचनाभा वराभयं पद्मधरां मुकटोज्जवलां।

स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनी नमोस्तुते॥ 🌹💐🙏🏻

Tuesday, April 5, 2022

महालक्ष्मी मंदिर, कोल्हापुर:


महालक्ष्मी मंदिर, कोल्हापुर:
 पंचम नवरात्रि के तथा लक्ष्मी पंचमी के  दिन आप जानकारी प्राप्त कर रहे हैं महालक्ष्मी कोल्हापुर  मंदिर में विराजमान माता महालक्ष्मी की कथा को                                                            🚩मां लक्ष्मी का यह प्राचीन मंदिर महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में स्थित है। इसका नाम महालक्ष्मी मंदिर है। मान्यता के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण चालुक्य शासक कर्णदेव ने 7वीं शताब्दी में करवाया था। इसके बाद इस मंदिर का पुनर्निर्माण शिलहार यादव ने 9वीं शताब्दी में करवाया था। बता दें कि महालक्ष्मी मंदिर के मुख्य गर्भगृह में मां लक्ष्मी की 40 किलो की प्रतिमा स्थापित है। इस मूर्ति की लंबाई 4 फीट है। यह करीब 7,000 वर्ष पुरानी है।

महालक्ष्मी मंदिर की विशेषता:

ऐसी मान्यता है कि देवी सती के इस स्थान पर तीन नेत्र गिरे थे। यहां भगवती महालक्ष्मी का निवास माना जाता है। इस मंदिर की एक खासियत यह भी है कि वर्ष में एक बार मंदिर में मौजूद देवी की प्रतिमा पर सूर्य की किरणें सीधे पड़ती हैं। कहा जाता है कि महालक्ष्मी अपने पति तिरुपति यानी विष्णु जी से रूठकर कोल्हापुर आईं थीं। यही कारण है कि तिरुपति देवस्थान से आया शाल उन्हें दीपावली के दिन पहनाया जाता है।यह भी कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति की तिरुपति यात्रा तब तक पूरी नहीं होती है जब तक व्यक्ति यहां आकर महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना ना कर ले। यहां पर महालक्ष्मी को अंबाबाई नाम से भी जाना जाता है। दीपावली की रात मां की महाआरती की जाती है। मान्यता है कि यहां पर आने वाले हर भक्त की मुराद पूरी होती है।

महालक्ष्मी मंदिर की प्रचलित कथा:

केशी नाम का एक राक्षस था जिसके बेटे का नाम कोल्हासुर था। कोल्हासुर ने देवताओं को बहुत परेशान कर रखा था। इसके अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवगणों ने देवी से प्रार्थना की थी। तब महालक्ष्मी ने दुर्गा का रूप धारण किया और ब्रह्मशस्त्र से कोल्हासुर का सिर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन कोल्हासुर ने मरने से पहले मां से एक वरदान मांगा। उसने कहा कि इस इलाके को करवीर और कोल्हासुर के नाम से जाना जाए। यही कारण है कि मां को यहां पर करवीर महालक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। फिर बाद में इसका नाम कोल्हासुर से कोल्हापुर किया गया। इस मंदिर में

जानें मंदिर की बनावट के बारे में:

इस मंदिर में दो मुख्य हॉल हैं जिसमें पहला दर्शन मंडप और दूसरा कूर्म मंडप है। दर्शन मंडप हॉल की बात करें तो यहां श्रद्धालु जन माता के दिव्य स्वरूप का दर्शन करते हैं। वहीं, कूर्ममंडप में भक्तों पर पवित्र शंख द्वारा जल छिड़का जाता है। यहां मौजूद माता की प्रतिमा के चार हाथ हैं और उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल का पुष्प है। मां चांदी के भव्य सिंहासन पर विराजमान हैं। इनका छत्र शेषनाग का फन है। मां को धन-धान्य और सुख-संपत्ति की अधिष्ठात्री माना जाता है।

नवरात्रि के पांचवे दिन मां स्कंदमाता की पूजा

 


नवरात्रि के पांचवे दिन मां स्कंदमाता की पूजा की जाती है। मां अम्बे के हर रूप की तरह यह रूप भी बेहद सरस और मोहक है। मां के इस स्वरूप की पूजा करने से माता के भक्तों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मां अपने भक्तों के सारे दोष और पाप दूर करके उनकी समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं।

भगवान स्कंद ‘कुमार कार्तिकेय’ नाम से भी जाने जाते हैं। कुमार कार्तिकेय प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गा जी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है। स्कंदमाता की चार भुजाएँ हैं। इनके दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजा, जो ऊपर की ओर उठी हुई है, उसमें कमल पुष्प है। बाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा में वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है उसमें भी कमल पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णतः शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। सिंह भी इनकी सवारी है।

नवरात्रि-पूजन के पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है। नवरात्रि के पांचवे दिन स्कंदमाता की अलसी से औषधी के रूप में पूजा होती है। स्कंद माता को पार्वती एवं उमा के नाम से भी जाना जाता है। अलसी एक औषधि से जिससे वात, पित्त, कफ जैसी मौसमी बीमारियों का इलाज होता है। इस औषधि को नवरात्रि में माँ स्कंदमाता को चढ़ाने से मौसमी रोगों से मुक्ति मिल जाती है। साथ ही स्कंदमाता की आराधना के फल स्वरूप चित्त को शांति मिलती है।

माँ स्कंदमाता पापियों को भी क्षमा कर देती हैं यदि कोई पापी मां की शरण में पहुंचता है, तथा उसे अपने प्रेम के आंचल से ढ़क लेती है।

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

माँ स्कंदमाता का वाहन सिंह है इसलिये इस मंत्र के उच्चारण सहित माँ की आराधना की जाती है-

सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।

शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥

🌷माता की पूजा में उपयोगी खाद्य साम्रगी – पंचमी तिथि के दिन पूजा करके माँ भगवती को केले का भोग लगाएं और वह प्रसाद ब्राह्मण को दे दें।

🌷आज श्री स्कंदमाता की पूजा में सफेद रंग के वस्त्र पहनकर मां की आराधना करना शुभ माना जाता है |.और आज स्कंदमाता के साथ-साथ होगी माता महालक्ष्मी की भी पूजा क्योंकि आज है श्री पंचमी तो आज करें माता महालक्ष्मी की भी पूजा

हिन्दू नवरात्रि के तीसरे दिन शक्ति के तीसरे स्वरूप मां चंद्रघंटा की पूजा-


हिन्दू नवरात्रि के तीसरे दिन शक्ति के तीसरे स्वरूप मां चंद्रघंटा की पूजा-

वंदना की जाती है। आम जनमानस की भाषा में इन्हें भगवती चंद्रघंटा भी कहा जाता है... देवी के इस तीसरी स्वरूप का रूप बेहद खूबसूरत है। माता के माथे पर घंटे आकार का अर्धचन्द्र है, जिस कारण इन्हें चन्द्रघंटा कहा जाता है।

इनका रूप परम शांतिदायक और कल्याणकारी है। माता का शरीर स्वर्ण के समान उज्जवल है, इनका वाहन सिंह है और इनके दस हाथ हैं जो की विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से सुशोभित रहते हैं। सिंह पर सवार मां चंद्रघंटा का रूप युद्ध के लिए उद्धत दिखता है और उनके घंटे की प्रचंड ध्वनि से असुर और राक्षस भयभीत करते हैं।

ऐसी मान्यता है कि भगवती चंद्रघंटा की उपासना करने से भक्त आध्यात्मिक और आत्मिक शक्ति प्राप्त करता है। पूर्ण विधि से मां की उपासना करने वाले भक्त को संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान प्राप्त होता है।

एक और मान्यता यह भी है कि माता चंद्रघंटा की पूजा-अर्चना से भक्तों को सभी जन्मों के कष्टों और पापों से मुक्त मिलती है। माता अपने सच्चे भक्तों को इसलोक और परलोक में कल्याण प्रदान करती है और भगवती अपने दोनों हाथो से साधकों को चिरायु, सुख सम्पदा और रोगों से मुक्त होने का वरदान देती है।

पिण्डज प्रवरारुढ़ा चण्डकोपास्त्र कैर्युता |

प्रसादं तनुते मह्यं चंद्र घंष्टेति विश्रुता || जय माता दी🙏🏻

🌷🌷🌷🌷 सिद्धिदात्री की पूजा से भरेंगे धन के भण्डार

 🌷🌷🌷🌷 सिद्धिदात्री की पूजा से भरेंगे धन के भण्डार 

मां सिद्धिदात्री कथा भगवान शिव ने मां सिद्धिदात्री की कृपा से ही आठ सिद्धियों को प्राप्त किया था। इन सिद्धियों में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व शामिल हैं। इन्हीं माता की वजह से भगवान शिव को अर्द्धनारीश्वर नाम मिला, क्योंकि सिद्धिदात्री के कारण ही शिव जी का आधा शरीर देवी का बना। हिमाचल का नंदा पर्वत इनका प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। मान्यता है कि जिस प्रकार इस देवी की कृपा से भगवान शिव को आठ सिद्धियों की प्राप्ति हुई ठीक उसी तरह इनकी उपासना करने से बुद्धि और विवेक की प्राप्ति होती है कमल पर विराजमान चार भुजाओं वाली मां सिद्धिदात्री लाल साड़ी में लिपटी होती हैं। इनके चारों हाथों में सुदर्शन चक्र, शंख, गदा और कमल रहता है। सिर पर ऊंचा सा मुकूट और चेहरे पर मंद मुस्कान ही मां सिद्धिदात्री की पहचान है।  मां सिद्धिदात्री पूजा विधि घी का दीपक जलाने के साथ-साथ मां सिद्धिदात्री को कमल का फूल अर्पित करना शुभ माना जाता है। इसके अलावा लाल वस्त्र में लपेट कर फल या भोजन मां को अर्पित करें। साथ ही नवमी पूजने वाले कंजकों और निर्धनों को भोजन कराने के बाद ही खुद खाएं। मां सिद्धिदात्री मंत्र या देवी सर्वभू‍तेषु मां सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।

 भगवान शिव ने मां सिद्धिदात्री की कृपा से ही आठ सिद्धियों को प्राप्त किया था। इन सिद्धियों में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व शामिल हैं। इन्हीं माता की वजह से भगवान शिव को अर्द्धनारीश्वर नाम मिला, क्योंकि सिद्धिदात्री के कारण ही शिव जी का आधा शरीर देवी का बना।

हिमाचल का नंदा पर्वत इनका प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। मान्यता है कि जिस प्रकार इस देवी की कृपा से भगवान शिव को आठ सिद्धियों की प्राप्ति हुई ठीक उसी तरह इनकी उपासना करने से बुद्धि और विवेक की प्राप्ति होती है

कमल पर विराजमान चार भुजाओं वाली मां सिद्धिदात्री लाल साड़ी में लिपटी होती हैं। इनके चारों हाथों में सुदर्शन चक्र, शंख, गदा और कमल रहता है। सिर पर ऊंचा सा मुकूट और चेहरे पर मंद मुस्कान ही मां सिद्धिदात्री की पहचान है।🌷🌷🌷

हिंदू धर्म में प्रमुख देवी है महालक्ष्मी


 हिंदू धर्म में प्रमुख देवी है महालक्ष्मी
| भगवान विष्णु की शक्ति हैं उन्हीं की  सृष्टि का पालन करते हैं तथा भगवान विष्णु की पत्नी है |                                🌷वह (पार्वती) माता महाकाली तथा माता महासरस्वती के साथ 3 देवियों में प्रमुख स्थान रखती हैं महालक्ष्मी धन ,संपदा शांति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं| दीपावली के त्यौहार में उनकी उनके मानस पुत्र गणेश सहित पूजा की जाती है जिनका उल्लेख सबसे पहले यजुर्वेद के श्री सूक्त में मिलता है लक्ष्मी जो धन की देवी हैं तथा विष्णु की पत्नी है, वह महालक्ष्मी का अंश है महालक्ष्मी का अवतार है तथा महालक्ष्मी परा शक्ति परा प्रकृति है इन्हीं के साथ भगवती महाकाली भगवती महासरस्वती विराजमान रहती हैं उन्हीं के अंश मात्र हैं काली पार्वती जो महाकाली के अंश हैं लक्ष्मी विष्णु पत्नी कमला जो महालक्ष्मी के अंश है तथा सरस्वती विद्या बुद्धि जो महासरस्वती के अंश हैं महासरस्वती आठ भुजाओं से युक्त हैं महालक्ष्मी 18 भुजाओं से युक्त हैं तथा महाकाली 10 भुजाओं से युक्त है इनका उल्लेख दुर्गा सप्तशती तथा श्रीमद् देवी भागवत महापुराण में मिलता है

नवरात्रि में चौथे दिन देवी को कुष्मांडा के रूप में पूजा जाता है

   


नवरात्रि में चौथे दिन देवी को कुष्मांडा के रूप में पूजा जाता है

अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा अण्ड यानी ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत्‌ हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है। 

इस देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। 

 इस देवी का वाहन सिंह है और इन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है। संस्कृति में कुम्हड़े को कुष्मांड कहते हैं इसलिए इस देवी को कुष्मांडा। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है। 

अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के चौथे दिन इस देवी की पूजा-आराधना करना चाहिए। इससे भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है। 

विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है। ये देवी आधियों-व्याधियों से मुक्त करती हैं और उसे सुख-समृद्धि और उन्नति प्रदान करती हैं। अंततः इस देवी की उपासना में भक्तों को सदैव तत्पर रहना चाहिए।  🚩जय माता दी🚩

🌷🔱बुद्धि की देवी हैं मां शारदा


 मैहर धाम मध्य प्रदेश,चमत्कारों से भरा है मां शारदा का यह शक्तिपीठ, जहां पुजारी से पहले हि अपने आप हो जाती है मां की पूजा, बंद मंदिर में ही चढ़ा जाता है कोई फूल

त्रिकूट पर्वत की ऊंची चोटी पर भव्य और सुंदर भवन में विराजमान हैं मां शारदा.         मैहर वाली मां के रूप में प्रसिद्ध मां शारदा के इस पावन धाम से जुड़े चमत्कार और धार्मिक इतिहास के बारे में जानने के लिए जरूर पढ़ें ये लेख.

 🌷🔱चमत्कारों से भरा है मां शारदा का यह शक्तिपीठ, जहां पुजारी से पहले चढ़ा जाता है कोई फूल

मां शारदा का मंदिर, मैहर

🌷🔱पौराणिक मान्यता के अनुसार सती के अंग जहां-जहां पर गिरे थे, वहां-वहां पर एक शक्तिपीठ स्थापित हो गया. ऐसे ही 51 शक्तिपीठों में एक मां शारदा का पावन धाम मध्य प्रदेश के मैहर में त्रिकूट पर्वत की ऊंची चोटी पर है, जिसके बारे में मान्यता है कि यहां पर सती का हार गिरा था. माता यहां पर भव्य और सुंदर भवन में विराजमान हैं. पहाड़ की चोटी पर स्थित मैहर देवी का यह मंदिर अपने चमत्कारों के लिए देश-दुनिया में जाना जाता है. मान्यता है कि मैहर वाली मां शारदा के महज दर्शन मात्र से ही भक्तों के सभी दु:ख दूर हो जाते हैं और सभी मनोकामनाएं पूरी हेाती हैं.

🌷🔱पुजारी से पहले कौन करता है पूजा

शारदा माता मंदिर के बारे में लोगों की मान्यता है कि इस मंदिर के पट बंद हो जाने के बाद जब पुजारी पहाड़ से नीचे चले आते हैं और वहां पर कोई भी नहीं रह जाता है तो वहां पर आज भी दो वीर योद्धा आल्हा और उदल अदृष्य होकर माता की पूजा करने के लिए आते हैं और पुजारी के पहले ही मंदिर में पूजा करके चले जाते हैं. मान्यता है कि आल्हा-उदल ने ही कभी घने जंगलों वाले इस पर्वत पर मां शारदा के इस पावन धाम की न सिर्फ खोज की, बल्कि 12 साल तक लगातार तपस्या करके माता से अमरत्व का वरदान प्राप्त किया था. मान्यता यह भी है कि इन दोनों भाइयों ने माता को प्रसन्न करने के लिए भक्ति – भाव से अपनी जीभ शारदा को अर्पण कर दी थी, जिसे मां शारदा ने उसी क्षण वापस कर दिया था.

🌷🔱बुद्धि की देवी हैं मां शारदा

सनातन परंपरा में मां शारदा को विद्या, बुद्धि और कला की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूजा जाता है. परीक्षा-प्रतियोगिता की तैयारी में जुटे छात्र मां शारदा का विशेष आशीर्वाद लेने के लिए बड़ी संख्या में यहां पर पहुंचते हैं. मां शारदा की सच्चे मन से पूजा करने वाले साधक को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त होता है और उसकी कभी भी अकाल मृत्यु नहीं होती. मां शारदा की कृपा से वह हमेशा तमाम प्रकार के भय, रोग आदि तमाम प्रकार की व्याधियों से भी बचा रहता है. लगभग 600 फुट की ऊंचाई वाले इस शक्तिपीठ में माता के दर्शन करने के लिए भक्तों को मंदिर की 1001 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं. हालांकि आप चाहें तो रोपवे से भी वहां पर आसानी से पहुंच सकते हैं. मैहर धाम विंध्यवासिनी धाम वैष्णो देवी धाम कोलकाता कालीघाट धाम और भी अन्य महत्वपूर्ण धामों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है यह शक्तिपीठ चमत्कारी शक्ति पीठ कहा जाता है🌷🔱 जय मां शारदा🔱🌷

नवदुर्गा के दूसरे स्वरूप मां ब्रह्मचारिणी की पूजा


नवदुर्गा के दूसरे स्वरूप मां ब्रह्मचारिणी की पूजा
करने से ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति होती है. शास्‍त्रों में मां एक हर रूप की पूजा विधि और कथा का महत्‍व बताया गया है. मां ब्रह्मचारिणी की कथा जीवन के कठिन क्षणों में भक्‍तों को संबल देती है.

मां की उपासना का मंत्र 

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू। 

देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥ 

ब्रह्मचारिणी का अर्थ तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली. देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है. मां के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में यह कमण्डल धारण किए हैं.

मां ब्रह्मचारिणी की कथा

पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी. इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात्‌ ब्रह्मचारिणी नाम से जाना गया. एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया.

कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे. तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं. इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए. कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं. पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया. 

कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया. देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा- हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की. यह आप से ही संभव थी. आपकी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे. अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ. जल्द ही आपके पिता आपको लेने आ रहे हैं. मां की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए. मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है ||

मां दुर्गा को सर्वप्रथम शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है।


मां दुर्गा को सर्वप्रथम शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है।
 

हिमालय के वहां पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण उनका नामकरण हुआ शैलपुत्री। इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं। इस देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही देवी प्रथम दुर्गा हैं। ये ही सती के नाम से भी जानी जाती हैं। उनकी एक मार्मिक कहानी है। 

एक बार जब प्रजापति ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, भगवान शंकर को नहीं। सती यज्ञ में जाने के लिए विकल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है।

सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव है। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को क्लेश पहुंचा। 

वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपने को जलाकर भस्म कर लिया। इस दारुण दुःख से व्यथित होकर शंकर भगवान ने उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं। 

पार्वती और हेमवती भी इसी देवी के अन्य नाम हैं। शैलपुत्री का विवाह भी भगवान शंकर से हुआ। शैलपुत्री शिवजी की अर्द्धांगिनी बनीं। इनका महत्व और शक्ति अनंत है।

Monday, April 4, 2022

क्यों रखी जाती है सिर पर शिखा या चोटी? जानिए इसके धार्मिक और वैज्ञानिक कारण

 


क्यों रखी जाती है सिर पर शिखा या चोटी? जानिए इसके धार्मिक और वैज्ञानिक कारण-: 

वैदिक संस्कृति में शिखा चोटी को कहा जाता है. चोटी रखने की प्रथा ऋषि मुनि के समय से चली आ रही है. जिसका पालन हिन्दू धर्म में अभी तक किया जा रहा है. चोटी रखने को लेकर विज्ञान ने भी अपना सकारात्मक पक्ष रखा है. आइए जानते हैं कि क्यों हिंदू धर्म में चोटी रखना अनिवार्य बताया गया है.

शिखा का महत्तब-: सनातन धर्म में पैदा होने से लेकर मृत्यु तक कई सारे संस्कार और मान्यताएं होती हैं. जिनका अपने अपने समय पर महत्व रहता है. जब बच्चा पैदा होता है उसके बाद उसका मुंडन संस्कार किया जाता है. उसे द्विज कहा जाता है इसका मतलब बच्चे का दूसरा जन्म है. इसके अलावा और भी संस्कार हैं जिनमें से एक है सिर पर शिखा या चोटी रखना. वैदिक संस्कृति  में शिखा चोटी को कहा जाता है. चोटी रखने की प्रथा ऋषि मुनि के समय से चली आ रही है. जिसका पालन हिन्दू धर्म में अभी तक किया जा रहा है. चोटी रखने को लेकर विज्ञान ने भी अपना सकारात्मक पक्ष रखा है. आइए जानते हैं कि क्यों हिंदू धर्म में चोटी रखना अनिवार्य बताया गया है.
क्या कारण है चोटी रखने का
बच्चे का जब भी मुंडन किया जाता है या फिर किसी के घर में बुजुर्ग का निधन हो जाता है तो जो व्यक्ति अपना सिर मुंडवाता है, उस समय सिर पर थोड़े से बाल छोड़ दिए जाते हैं. जिसे चोटी या शिखा कहा जाता है. यह संस्कार यज्ञोपवित या जनेऊ के समय भी किया जाता है. सिर में जहां पर चोटी रखी जाती है वो जगह सहस्त्रार चक्र कहलाती है. ऐसी मान्यता है कि सहस्त्रार चक्र के नीचे ही मनुष्य की आत्मा का वास होता है.

विज्ञान के अनुसार
विज्ञान कहता है कि इस स्थान पर मस्तिष्क का केंद्र होता है. इसी स्थान से शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित किया जाता है.

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार
ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है कि जिसकी कुंडली में राहु नीच का हो या फिर बुरा असर दे रहा हो तो उसे सलाह दी जाती है कि वह माथे पर तिलक लगाए और सिर पर चोटी रखे.

जानकार क्या कहते हैं
जानकारों के अनुसार जिस स्थान पर चोटी रखी जाती है वहां से मस्तिष्क संतुलन में रहता है. इससे सहस्त्रार चक्र जागृत रहता है. चोटी रखने से सहस्रार चक्र को जागृत करने और बुद्धि, मन और शरीर पर नियंत्रण रखने में सहायता मिलती है.

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार 
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार मान्यता है कि सहस्रार चक्र का आकार गाय के खुर के समान होता है. इसीलिए चोटी भी गाय के खुर के बराबर ही रखी जाती है.

Friday, April 1, 2022

*जनेऊ क्या है और इसकी क्या महत्वता है?*



*जनेऊ क्या है और इसकी क्या महत्वता

*भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥


जनेऊ क्या है : आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। जनेऊ को संस्कृत भाषा में ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है।


यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।


तीन सूत्र क्यों : जनेऊ में मुख्यरूप से तीन धागे होते हैं। यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और  यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है।यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।


नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं।


पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।


वैदिक धर्म में प्रत्येक  आर्य का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। प्रत्येक  आर्य को जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।


जनेऊ की लंबाई : यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए।


चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।

हर साल वचन निभाने पुरी से मानोरा आते हैं भगवान जगदीश स्वामी

  विदिशा . अपने भक्त मानकचंद तरफदार को दिया वचन निभाने जगदीश स्वामी अपने भाई बलभद्र और बहन देवी सुभद्रा संग हर साल आषाढ़ सुदी दूज के दिन भक्...